साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द। कविता, कहानी, नाटक, निबंध, रिपोर्ताज, जीवनी, रेखाचित्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे हैं। परिभाषा इस लिये भी कठिन हो जाती है कि धर्म, राजनीति, समाज, समसमयिक आलेखों, भूगोल, विज्ञान जैसे विषयों पर जो लेखन है उसकी क्या श्रेणी हो? क्या साहित्य की परिधि इतनी व्यापक है?
संस्कृत में एक शब्द है वांड्मय। भाषा के माध्यम से जो कुछ भी कहा गया, वह वांड्मय है। साहित्य के संदर्भ में संस्कृत की इस परिभाषा में मर्म है – शब्दार्थो सहितौ काव्यम। यहाँ शब्द और अर्थ के साथ भाव की आवश्यकता मानी गयी है। इसी परिभाषा को व्यापक करते हुए संस्कृत के ही एक आचार्य विश्वनाथ महापात्र नें “साहित्य दर्पण” नामक ग्रंथ लिख कर “साहित्य” शब्द को व्यवहार में प्रचलित किया। संस्कृत के ही एक आचार्य कुंतक व्याख्या करते हैं कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुन्दरता के लिये स्पर्धा या होड लगी हो, तो साहित्य की सृष्टि होती है। केवल संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट लिखना ही साहित्य नहीं है न ही अनर्थक तुकबंदी साहित्य कही जा सकेगी। वह भावविहीन रचना जो छंद और मीटर के अनुमापों में शतप्रतिशत सही भी बैठती हो, वैसी ही कांतिहीन हैं जैसे अपरान्ह में जुगनू। अर्थात, भाव किसी सृजन को वह गहरायी प्रदान करते हैं जो किसी रचना को साहित्य की परिधि में लाता है। कितनी सादगी से निदा फ़ाज़ली कह जाते हैं
मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
दुख नें दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।
यहाँ शब्द और अर्थ के बीच सादगी की स्पर्था है किंतु भाव इतने गहरे कि रोम रोम से इस सृजन को महसूस किया जा सकता है। यही साहित्य है। साहित्य शब्द की चीर-फाड करने पर एक और छुपा हुआ आयाम दीख पडता है वह है इसका सामाजिक आयाम। बहुत जोर दे कर एक परिभाषा की जाती है कि “साहित्य समाज का दर्पण है”। रचनाकार अपने सामाजिक सरोकारों से विमुक्त नहीं हो सकता, यही कारण है कि साहित्य अपने समय का इतिहास बनता चला जाता है। अपने समय पर तीखे हो कर दुष्यंत कुमार लिखते हैं:
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये।
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की निम्नलिखित अमर पंक्तियाँ, साहित्य के इस आयाम का अनुपम उदाहरण हैं:
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
संक्षेप में “साहित्य” - शब्द, अर्थ और भावनाओं की वह त्रिवेणी है जो जनहित की धारा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित है।
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